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कई भारतीय किसान मायक्रोफायनान्स ऋण में फँस गए हैं। कुछ आत्महत्या कर रहे हैं। क्या हम उन्हें बचा सकते हैं?
मोहन घर में अपने कर्ज के बारे में चिंतित थे, और उनके दो बच्चे घर के बाहर खेल रहे थे। वे सोच रहे की, भले ही हमारे माता-पिता ने कर्ज के कारण आत्महत्या की हो, हम ऐसा नहीं करेंगे।
किसी संक्रामक बीमारी की तरह, कर्ज का पहले मोहन के पिता पर असर पड़ा। वे अपना कर्ज चुकाने में नाकाम रहे। पिता की आत्महत्या के बाद, इस ऋण ने मोहन की माँ पर हमला किया। चार साल तक मोहन की माँ ने ऋण चुकाने की कोशिश की। अंत में, उन्होंने कुएँ में कूद कर ख़ुदकुशी कर ली। अब मोहन के कंधे पर कर्ज का बोझ आया।
यह परिवार मध्य भारतीय राज्य, महाराष्ट्र में रहता है। हम पिछले तीन सालों से उनसे मिलने जा रहे हैं। तीन सालों में, दरवाज़े के बहार बंधी गाय, जो मानव निर्मित धन और ऋण से अपरिचित है, को छोड़कर, सबकुछ बदला गया था|
मई के महीने में, अपने अपने खेतों में जाने से पहले, कई किसान हमसे बात करने आएँ। पुराने और टूटे हुए कृषि औज़ार बदलने या नए बीज खरीदने के लिए उन्हें ऋण की जरुरत थी। पुनर्भुगतान बहुत भारी पड़ रहा था। लेकिन आमतौर पर वह इस बात को छुपाते थे। एक तरफ यह शर्म की बात थी, और दूसरी तरफ, अगर यह ज्ञात हुआ कि ऋण लिया गया है, तो नया ऋण प्राप्त करना मुश्किल हो जाता।
हम गए, तब बुवाई का मौसम निकट आय था। पिछले साल की फसल में पर्याप्त लाभ नहीं हुआ था| इसलिए, नए बीज खरीदने के लिए, मोहन को एक और ऋण की जरुरत थी। पिता द्वारा लिए २,००,००० रुपयों (२,९०० अमरीकी डॉलर) मे से, उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को १,६०,००० रुपये वापस किये थे| २,००,००० रुपये यह रकम किसी भी सामान्य किसान की दो साल की औसत आय से भी अधिक है| ४०,००० रुपयों के पुराने कर्ज के अलावा, उन्होंने अपने नाम पर नया ७०,००० का ऋण उधार लिया था|
नॅशनल सॅम्पल सर्व्हे ऑफिस की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में लगभग 60 प्रतिशत परिवारों के पास 54,700 रुपये का उधार है। इनमें से अधिकतर ऋण सहकारी समितियों और बैंकों जैसे संस्थागत उधारदाताओं द्वारा प्रदान किए गए हैं। मोहन को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने ऋण दिया है। बैंक ने इसके बारे में अधिक जानकारी देनेसे से इंकार कर दिया। कुछ गिनेचुने लोगोंने निजी उधारदाताओं से ऋण लिया है।
जिन किसानोंने आत्महत्या कर ली थी, उनके वारिसोंको, कर्जा चुकाने के लिए, सरकार 100,000 रुपये की मदद कर रही है| लेकिन इसके लिए, ऋण राष्ट्रीय या सरकारी बैंकों से प्राप्त हुआ होना जरूरी है| निजी सवकारोंसे लिए कर्ज के लिए यह मदद नहीं दी जाती|
मोहनने ज्यादातर रकम खेती में लगा दी| फसल पे होनेवाले किटकोंके हमले, जैसे की पिछले साल की गुलाबी बॉलवर्म, हर साल बढ़ रहे है। किसानों के पास बाजार तक सीधी पहुंच नहीं है। उन्हें कपास, सोयाबीन और दालें बेचने वाले दलालों पर निर्भर रहना पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण, विनाशकारी, फसल को नष्ट करनेवाला, सूखा पड रहा है। इसके कारण, कृषि की आय कम हो रही है।
बैंक, निजी उधारदाता और मायक्रोफायनान्स संस्थान ऋण की निर्दयतासे वसूली कर रहे हैं, चाहे कर्ज लेने वाला जीवित हो, या ना हो| वह मृत कर्जदारोंके पति-पत्नियों, बच्चों और यहाँ तक कि उनके पड़ोसिओं से ऋण की वसूली कर रहे है। जैसा कि हमारी रिपोर्ट में दिखाया गया है, कुछ ने आत्महत्या की है, लेकिन उनका कर्ज और उससे होने वाली निराशा जारी है|
ऋण के कारण होने वाले नुकसान हमें स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था| ज्यादातर ग्रामीण कुछ समय के लिए भय, चिंता और अवसाद को भुलाने के लिए शराब पी रहे हैं| “मैं हर रात अपनी परेशानियाँ भूलने के लिए शराब पीता हूँ”, गजानंद जोगी इस ग्रामीण ने हमें बताया।
जनवरी 2017 में पहली बार, भारतीय राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने किसानों की आत्महत्याओं के बारे मे रिपोर्ट जारी की। उसके अनुसार, देश की आधी आबादी सीधे या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। इसीलिए किसानों की आत्महत्या यह गंभीर समस्या है और सरकार से इसकी जांच होना जरूरी है।
2015 में किसानों की आत्महत्या के पीछे देनदारी मुख्य कारण था और लगभग 40 प्रतिशत आत्महत्या इसके वजह से हुई थी। यह संख्या 2014 के मुकाबले दोगुनी है। 20 प्रतिशत घटनाएँ फसल पर लगी बीमारी या सूखा पड़ने के कारण हुई| कर्नाटक राज्य मे 5 में से 4 आत्महत्याओं के पीछे ऋण यह मुख्य कारण था। महाराष्ट्र में इसका प्रमाण राष्ट्रीय औसत से थोड़ा ज्यादा, 43% था|
आज किसान ऋण के तले क्यों दबे है? वह आत्महत्या क्यों कर रहे है? आखिर किसानों को ऋण की आवश्यकता क्यों है? फार्मर्स डिस्ट्रेस मैनेजमेंट टास्क फोर्स के चेयरमैन और फार्मर्स ऍडव्होकसि ग्रुप – विदर्भ जन आंदोलन समिति के नेता किशोर तिवारी इसके कारण समझाते हुए कहते है – अगर किसान आत्महत्या कर रहे है तो जाहिर ही यह समस्या गंभीर है| कृषि से संबंधित समस्याओं और ऋण का गहरा संबंध है| किसान आर्थिक रूप से परेशानी में हैं। फसल को लगने वाली बीमारियाँ, सूखा पड़ना, उपज का योग्य भाव न मिलना इत्यादि के कारण किसान ऋण ले रहे है और उसके बोझ तले आत्महत्या कर रहे है|
वैसे देखा जाए, तो भारत में किसानों की आत्महत्या यह अपरिचित बात नहीं है| 2005 में, ऑल इंडिया बायोडाईनायमिक अँड ऑरगॅनिक फार्मिंग असोसिएशनने बॉम्बे हाई कोर्ट में किसानों की आत्महत्या पर चिंता व्यक्त की थी| उन्होंने मार्च 2001 से दिसंबर 2004 तक महाराष्ट्र में हुई 644 आत्महत्याओं (तुलनात्मक रूप से, 2015 में, केवल एक वर्ष में, यह संख्या 3,030 हो गयी) के बारे में रिपोर्ट पेश की। अदालत ने समस्या की गंभीरता देखकर इसके पीछे के कारणों की जांच करना जरूरी है, यह मान्य किया|
उनकी रिपोर्ट में यह पाया गया कि, लगातार होने वाला फसल का नुकसान, खेती की बढ़ती लागत, और कर्ज के बोज़ के वजह से किसान आत्महत्या कर रहे है| 2005 और 2006 में सरकार ने अनैतिक वसूली, अवैध ऑपरेटिंग सिस्टम जैसे की उच्च ब्याजदरों के कारण आंध्र प्रदेश की चार माइक्रो फिनान्स कंपनियों (एमएफआय) की 50 शाखाएँ बंद कर दी|
हालांकि, इन क्षेत्रों में वृद्धि जारी रही और अनैतिक संग्रह प्रणाली बढ़ती रही। एक किसान ने अनेक ऋण लेना शुरू कर दिया। 2010 तक, विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार, आंध्र प्रदेश में प्रति परिवार औसत ऋण राशि अन्य राज्यों से कमसेकम तीन गुना अधिक थी। जल्द ही ऋण और किसानों की आत्महत्या के बीच बढ़ते संबंधों की रिपोर्टें आने लगी|
भारतीय रिजर्व बैंक ने कृषि की कीमतों, लाभ प्रतिशत, प्रावधान और वसूली प्रथाओं को नियंत्रित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए। लेकिन, स्मार्ट अभियान के एक अध्ययन के अनुसार, नियामक ढांचे और लगातार वित्तीय लाभ (आंध्र प्रदेश के बाहर) ने निवेशकों को इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया और मायक्रोफायनान्स क्षेत्र आगे बढ़ता रहा। स्मार्ट अभियान सुझाते है कि उधारकर्ताओं के हितों की रक्षा के लिए मायक्रोफायनान्स क्षेत्र का संचालन किया जाना चाहिए।
एम.एस.श्रीराम जैसे विशेषज्ञ, जो इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, बैंगलोर, में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी के प्रोफेसर है, चेतावनी दे रहे हैं कि यह क्षेत्र “खतरनाक तेज़ी से” बढ़ रहा है। उनके अनुसार, यह क्षेत्र संतृप्ति के कगार पर है और जल्द ही वर्ष 2010 जैसी स्थिति निर्माण हो सकती है। 2016 की वित्तीय रिपोर्ट के मुताबिक, कई उधारकर्ता पांच से अधिक स्थानों से उधार ले चुके है। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती खबरों के चलते विशेषज्ञ चिंता व्यक्त कर रहे हैं।
उपरोक्त वीडियो इंटरव्यू में तिवारी जी ने कहा कि, “किसानों की आत्महत्या यह राज्य सरकार द्वारा किया नर संहार है”। और इसलिए हम सरकार से बात करने गए। किसानों की रक्षा और सहायता के लिए राजनेता क्या कर रहे हैं? हम पहुंचे देओली, जहा मोहन रहते है| यहा की जिल्हाधिकारी और पूर्व पुलिस अधिकारी बलुताई भागवत कहती है की जिला कार्यालय आत्महत्याओं के पीछे के कारणों का अभ्यास कर रहा है| उनके अनुसार, किसानों की आय बढ़ाने के लिए अनेक योजनाएँ बनाई गई, जैसे की, रेशम खेती के लिए 150 गाँवों को प्रति किसान एक हज़ार रुपये देना| परंतु केवल तीन गाँव उन्हें अपनाने को तैयार थे| सच जानने के लिए हम भिड़ी, फतेहपुर और सोनेगांव पहुंच गए|
सोनेगांव में हमने पाया कि रेशम खेती 2-3 साल पहले बंद हो गयी थी। भिड़ी में ढाई साल से रेशम की खेती चल रही है| लेकिन आय अभी तक शुरू नहीं हुई। किसानों ने हमें बताया कि पेड़ के विकास मे काफी समय लगता है और तब तक कीड़ों को खिलाना मुश्किल है। फतेहपुर में, मोटरसाइकिल पर सवार दो लोग हमें अपना रेशम के खेत दिखाने ले गए।
27 वर्षीय किसान, अमोल मालोतराव ढक्कलक ने हमें बताया, “रेशम खेती शुरुआत में विफल हो गयी थी| मई में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक चढ़ा और रेशम के कीड़े मर गए| कीड़ों को धूप से बचाना आवश्यक था, पर सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिली। अंत में, हमने खुद खेत में चंदवा बनाया|
हालांकि उन्हें सब्सिडी मिली, फिर भी सरकार से रेशम की खेती सीखने में कोई मदद नहीं मिली। उन्होंने एक सफल रेशम किसान से परामर्श किया। पहले सीजन में पेड़, कीड़े और मजदूरों के लिए करीब 10 हजार रुपये खर्च किए गए थे। राजस्व केवल 13 हजार रुपये था। प्राप्त खुदरा लाभ निवेश करने वाले तीन परिवारों में बाँटा गया। इन तीन परिवारों का खर्चा चलने के लिए कपास, सोयाबीन और दाल की खेती की गयी। रेशम की खेती का सबसे बड़ा फायदा यह है कि, इसपे कम-ज्यादा बारिश का असर नहीं होता। धूप और बारिश से कीड़ों की रक्षा करने के लिये बडा चंदवा बनाने की वह सोच रहे है।
वैभव पानपालीया द्वारा स्थापित गार्निच नमक खेत में एक और तंत्र तैनात किया गया है| पानपालीया यांत्रिक इंजीनियर है और ‘मके अ डिफरंन्स’ नामक NGO, जो अनाथ बच्चों के लिए काम करता है, मे प्रोग्राम डेव्हलपमेंट डायरेक्टर है| उन्होंने किसानों के मुद्दों की बेहतर समझने के लिए एक किसान बनने का फैसला किया। “मैं नागपुर का रहने वाला हु और मैंने किसानों की आत्महत्या के बारे में काफी [समाचार] पढ़ा था। लेकिन इससे पहले कि मैं उनकी मदद करू, उनकी समस्याओं को समझना जरूरी था। यही कारण है कि मैन खुद किसान बनाने का फैसला किया।” कपास की तरह नकद फसलों की बजाय गार्निच में सब्ज़ियाँ और फल उगाए जाते है। वे किसानों की आय बढ़ाने और उनकी वित्तीय ताकत बढ़ाने के लिए इस तरह के कई उपाय कर रहे हैं।
पानपालीया कहते है, आत्महत्याएँ रोकने के लिए, किसानों को ऋण से दूर रखना जरूरी है। लेकिन किसानों के पास क्या विकल्प हैं? स्मार्ट अभियान का कहना है कि वित्तीय कठिनाइयों में फसे किसानों को कोई छूट नहीं मिल रही। उन्होंने अपनी रिपोर्ट के लिए कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय एमएफआई, एनजीओ, ट्रस्ट और सहकारी समितियों के कर्मचारियों के साथ मुलाकात की। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि भारतीय एमएफआई समूह के आधार पर चलती है जिसमे कर्जदार एक-दूसरे के ऋण के लिए जिम्मेदार होते हैं|
इसका मतलब है कि, आमतौर पर इस प्रणाली में धन इकट्ठा करने के लिए सहकर्जदरों के दबाव का उपयोग किया जाता है। जब कोई व्यक्ति किस्त का भुगतान नहीं करता, तब पुरे ऋणदाता समूह को, उसके परिवार के सदस्यों को, कभी कबार उसके पड़ोसियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। एमएफआई कर्मचारी ऋणदाता पर दबाव डालते है| कभी कभी ऐसी दबाववादी बैठकें 5-6 घंटे के लिए चलती हैं।
यदि समूह के लोगों के दबाव से अपेक्षित नतीजे नहीं मिल रहे हैं, और उधारकर्ता आत्महत्या करता है, तो समूह के सदस्य, परिवार के सदस्य और अन्य गॉंववालों पर ऋण चुकाने की ज़िम्मेदारी डाली जाती है| इस प्रकार कई लोगों को एक-दूसरे के कर्ज के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
आम तौर पर, ऋणकी वसूली इसी तरीके से होती है। दुर्लभ मामलों में ऋणदाता समझौता करते है। एमएफआई स्टाफ के एक सदस्य के अनुसार, ऋण का गैर भुगतान करने के तीन कारण हैं: स्थलांतर, सूखा पड़ना और किसान खुद बीमार हो जाना| चरम स्थितियों में क्षेत्रीय प्रबंधक छूट देने का फैसला कर सकता है। पर इसमें, फसल को लगने वाली कीट जैसे पिछले साल की गुलाबी बोल्मवॉर्म या उपज को बाजार में सही कीमत ना मिलना, शामिल नहीं है। अधिकांश एमएफआई में औपचारिक ऋण वसूली की नीतियाँ नहीं हैं।
कुल मिलाकर, बकाया ऋण के कारण क्रेडिट रेटिंग घट जाती है, जिससे नया ऋण मिलना असंभव हो जाता है| रिपोर्ट में कहा गया है कि, उधारकर्ताओं को पहले से ही खराब क्रेडिट रेटिंग के परिणाम समझाये जाते है, और इस कारण ऋण का गैर भुगतान दुर्लभ है। एमएफआई ऋण के पुनर्गठन की अनुमति नहीं देते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि ग्राहक अंततः पुराने कर्ज का भुगतान करने के लिए वापस आ जाएगा।
उधारकर्ताओं को ऋण भुगतान के सरल पर्याय प्राप्त कराने के लिए, भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय साक्षरता और क्रेडिट परामर्श केंद्र (एफएलसीसी) स्थापित करने की कोशिश की है। हालांकि, 2012 में स्मार्ट अभियान के मूल्यांकन में पाया गया कि, एफएलसीसी का उपयोग ठीक से नहीं किया जा रहा है| बैंकों से भी पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है और इसीलिए एफएलसीसी ग्राहकों तक पहुंच नहीं रहे।
किसानों की आत्महत्याओं को रोकने के लिए, नियामक संस्थाओं और बैंकों को ठोस कदम उठाना जरूरी है| जैसे कि पुनर्भुगतान के लिए सस्ती योजनाएं लाना, ऋण देते समय उधारकर्ता की पुनर्भुगतान क्षमता की जांच करना, किस्त वसूली के वैकल्पिक तरीकों का सुझाव देना, आदि। इसके साथ, भारतीय सरकार को किसान की आय बढ़ाने के लिए उपाय करने की जरूरत है।
बेशक, यह एक बहुत मुश्किल काम है। लेकिन कुछ किसानों ने अपना रास्ता खुद ढूंढ लिया है। उदाहरण के लिए, धाकुलकर और मेश्रम जैसे किसानों ने सफलतापूर्वक रेशम की खेती शुरू कर दी है और अब वे मोती की खेती की ओर मूड रहे हैं। उन्होंने कहा की हमने यूट्यूब पर तालाब में मोती बनाने का वीडियो देखा है।
मोहन ने अपना पूरा नाम लेखक को बताया है, और उन्होंने ग्लोबल ग्राउंड को अपनी कहानी प्रकाशित करने की इजाज़त दी है| फिर भी, हमने उनकी और उनके परिवार की सुरक्षा के लिए, केवल उनके प्रथम नाम का उपयोग किया है।
यदि आप, या आपके आस-पास के किसी और को मदद की ज़रूरत है, तो कृपया आत्महत्या रोकथाम हॉटलाइन से संपर्क करें।
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